किलर कफ सीरप: औषधि निरीक्षक के पद खाली, प्रयोगशालाओं की भी कमी; कैसे हो दवाओं की जांच?
किलर कफ सीरप: औषधि निरीक्षक के पद खाली, प्रयोगशालाओं की भी कमी; कैसे हो दवाओं की जांच?
नई दिल्ली/भोपाल/जयपुर: त्योहारी मौसम की गहमागहमी के बीच, मध्य प्रदेश और राजस्थान के कई घरों में मातम पसरा है। वजह कोई बड़ी बीमारी नहीं, बल्कि एक मामूली सर्दी-खांसी की दवा है – एक कफ सीरप, जो बच्चों के लिए जीवन रक्षक बनने की बजाय ‘किलर’ बन गया। जहरीला कफ सीरप पीने से हुई बच्चों की दुखद मौतों ने एक बार फिर भारत की औषधि नियंत्रण व्यवस्था की जर्जर हालत को उजागर कर दिया है, जहाँ जान बचाने वाले ही सवालों के घेरे में हैं।
यह त्रासदी सिर्फ एक दवा कंपनी की लापरवाही का नतीजा नहीं है, बल्कि उस खोखले सरकारी तंत्र की भी कहानी है, जो सालों से संसाधनों की कमी से जूझ रहा है। यह कहानी है खाली पड़े औषधि निरीक्षकों के पदों की, नाम मात्र की प्रयोगशालाओं की, और उस कमजोर निगरानी प्रणाली की, जिसके चलते जहरीली दवाएं बेखौफ बाजार में बिक रही हैं।
जमीनी हकीकत: पद खाली, जिम्मेदार कौन?
औषधि नियंत्रण का पूरा ढांचा औषधि निरीक्षकों (Drug Inspectors) के कंधों पर टिका होता है। इनकी जिम्मेदारी दवा की दुकान से लेकर मैन्युफैक्चरिंग प्लांट तक दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करना, सैंपल इकट्ठा करना और किसी भी गड़बड़ी पर कार्रवाई करना है। लेकिन जब ये पद ही खाली हों, तो गुणवत्ता की जांच कौन करेगा?
एक आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार, देश के कई राज्यों में औषधि निरीक्षकों के 30% से 50% तक पद खाली पड़े हैं।
मध्य प्रदेश: जहाँ बच्चों की मौतें हुईं, वहाँ स्वीकृत पदों का एक बड़ा हिस्सा लंबे समय से रिक्त है। एक-एक निरीक्षक पर कई जिलों का कार्यभार है, जिससे वे न तो नियमित रूप से दुकानों का निरीक्षण कर पाते हैं और न ही उत्पादन इकाइयों पर कड़ी नजर रख पाते हैं। नाम न बताने की शर्त पर एक वरिष्ठ अधिकारी ने स्वीकार किया, “हमारे पास इतना स्टाफ ही नहीं है कि हर दुकान पर जाकर दवाओं के सैंपल उठा सकें। हम सिर्फ शिकायतों या संदेह के आधार पर ही कार्रवाई कर पाते हैं।”
राजस्थान: यहाँ भी स्थिति कुछ अलग नहीं है। विशाल भौगोलिक क्षेत्र वाले इस राज्य में निरीक्षकों की कमी के कारण दूर-दराज के कस्बों और गांवों में दवा की दुकानें लगभग निगरानी से बाहर हैं। इसका फायदा उठाकर नकली और घटिया दवाओं का कारोबार फलता-फूलता है।
यह केवल इन दो राज्यों की कहानी नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार से लेकर हिमाचल प्रदेश तक, जहाँ भारत का दवा उद्योग केंद्रित है, वहाँ भी निरीक्षकों की भारी कमी है। इस कमी का सीधा मतलब है कि दवाओं की निगरानी और जांच का काम रामभरोसे चल रहा है।
प्रयोगशालाओं का अभाव: जांच होगी कहाँ?
अगर कोई ईमानदार निरीक्षक सैंपल इकट्ठा कर भी ले, तो असली चुनौती उसे टेस्ट कराने की होती है। भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर की सरकारी दवा परीक्षण प्रयोगशालाओं (Drug Testing Laboratories) की भारी कमी है। राज्यों की अपनी प्रयोगशालाओं की हालत और भी दयनीय है।
अक्सर इन प्रयोगशालाओं में आधुनिक मशीनों का अभाव होता है, स्टाफ की कमी होती है और जांच की प्रक्रिया इतनी धीमी होती है कि जब तक रिपोर्ट आती है, तब तक दवा की पूरी खेप बाजार में बिक चुकी होती है। कई बार तो रिपोर्ट आने में महीनों लग जाते हैं।
इस मामले में भी यही हुआ। जब शुरुआती शिकायतें आईं, तो सैंपल इकट्ठा किए गए। लेकिन उन्हें जांच के लिए भेजने और रिपोर्ट आने के बीच के समय में, न जाने कितने और बच्चों ने उस जहरीले सीरप का सेवन कर लिया होगा। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हर जिले में या कम से कम हर संभाग में एक सुसज्जित प्रयोगशाला होती, तो इस त्रासदी को काफी हद तक रोका जा सकता था।
कैसे हुआ यह सब?
सूत्रों के अनुसार, जिस कफ सीरप से मौतें हुईं, उसमें डायथिलीन ग्लाइकॉल (Diethylene Glycol) या एथिलीन ग्लाइकॉल (Ethylene Glycol) जैसे जहरीले औद्योगिक सॉल्वैंट्स की मिलावट पाई गई। दवा कंपनियां लागत कम करने के लिए अक्सर ग्लिसरीन जैसे महंगे पदार्थ की जगह इन सस्ते औद्योगिक रसायनों का इस्तेमाल कर लेती हैं। ये रसायन इंसानों, खासकर बच्चों की किडनी और लिवर पर जानलेवा असर करते हैं।
यह पहली बार नहीं है। 2022 में गाम्बिया और उज्बेकिस्तान में भारतीय कफ सीरप से बच्चों की मौतों के पीछे भी यही रसायन जिम्मेदार थे। उस घटना के बाद देश में दवाओं की गुणवत्ता को लेकर बड़े-बड़े दावे किए गए थे, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं बदला। नतीजा आज हमारे सामने है।
उठते सवाल
यह त्रासदी कई गंभीर सवाल खड़े करती है:
जवाबदेही किसकी? क्या सिर्फ दवा कंपनी को दोषी मानकर मामला खत्म कर दिया जाएगा, या उन सरकारी अधिकारियों पर भी कार्रवाई होगी, जिनकी निगरानी में यह सब हुआ?
खाली पद कब भरेंगे? सरकारें औषधि निरीक्षकों जैसे महत्वपूर्ण पदों को भरने में इतनी उदासीन क्यों हैं?
प्रयोगशालाएं कब सुधरेंगी? दवाओं की त्वरित जांच के लिए देश में एक मजबूत प्रयोगशाला नेटवर्क कब स्थापित होगा?
क्या कानून कमजोर है? क्या नकली और जहरीली दवा बनाने वालों के लिए मौजूदा कानून पर्याप्त सख्त है, या इसमें बदलाव की जरूरत है ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो?
जब तक इन सवालों के ठोस जवाब नहीं मिलते, तब तक हमारे बच्चे असुरक्षित हैं। आज यह किसी और का बच्चा है, कल हमारा भी हो सकता है। यह सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि एक चेतावनी है कि अगर हमने अपनी दवा नियंत्रण प्रणाली को दुरुस्त नहीं किया, तो ऐसी दुखद घटनाएं भविष्य में भी होती रहेंगी और हम शोक मनाने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगे।
